रमन प्रभाव का कैसे हुआ प्रादुर्भाव | Story Behind Raman's Effect Invention | The NK Lekh
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खोज की पृष्ठभूमि
20वीं सदी की शुरुआत में प्रकाश की प्रकृति समझने में कई महत्वपूर्ण प्रगति हो चुकी थी। लॉर्ड रेले ने 19वीं सदी में आकाश के नीले रंग की व्याख्या करते हुए बताया कि वायुमंडल के अणु छोटे तरंगदैर्ध्य (नीले) प्रकाश को अधिक प्रकीर्णित करते हैं। 1923 में आर्थर कॉम्पटन ने एक्स-रे प्रकीर्णन (कॉम्पटन प्रभाव) के अध्ययन से प्रकाश की कण-स्वरूपता की पुष्टि की, जिससे प्रकाश के क्वांटम-स्वरूप सिद्धांत को बल मिला। ठीक उसी वर्ष जर्मन भौतिक विज्ञानी एडॉल्फ स्मेकल ने प्रकाश का इन-इलास्टिक प्रकीर्णन (inelastic scattering) सिद्धांत रूप में पूर्वानुमानित किया था। इन सभी उपलब्धियों ने प्रकाश प्रकीर्णन (scattering) की बुनियाद रखी, जिसपर सी. वी. रमन की खोज आधारित थी।
रमन की प्रेरणा: समुद्र का नीला रंग और प्रकाश के अध्ययन
सी. वी. रमन की वैज्ञानिक खोजों की शुरुआत समुद्र के गहरे नीले रंग के रहस्य से हुई। 1921 में इंग्लैंड से भारत लौटते समय रमन ने देखा कि समुद्र का रंग सिर्फ आकाश के प्रतिफलित होने के कारण नहीं है। उन्होंने विशेष निकोल प्रिज्म से जल में वायुमंडल के परावर्तन को निकालकर मेडिटेरेनियन, लाल और अरबी समुद्र में प्रेक्षण किया। इन प्रयोगों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि जल के अणु वायु अणुओं की तरह ही प्रकाश को प्रकीर्णित करते हैं, और इसका परिणाम समुद्र के गहरे नीले रंग के रूप में प्रकट होता है। इन अवलोकनों पर 17 नवम्बर 1921 को उन्होंने Nature पत्रिका में अपने विचार प्रस्तुत किए।
प्रयोग और प्रयोगशाला सेटिंग
रमन ने अपने प्रयोगों के लिए कलकत्ता (अब कोलकाता) के भारतीय विज्ञान संवर्धन संघ (IACS) की अनौपचारिक प्रयोगशाला का उपयोग किया। उपलब्ध साधन सीमित थे; शुरुआत में रमन और उनके सहकर्मी के.एस. कृष्णन ने तेज धूप, प्रकाश फिल्टर और सरल दृश्यमान अवलोकन विधि से प्रयोग किए। उन्होंने धूप के स्पेक्ट्रम का बैंगनी हिस्सा निकलकर उसे तरल नमूनों से गुजारकर देखा कि प्रकीर्णित प्रकाश का एक क्षीण अंश हरित रंग का होता है। इस प्रयोग में लगभग ६० विभिन्न द्रवों पर परीक्षण किया गया और सभी में एक समान परिणाम मिला – कुछ प्रकाश तरंगदैर्ध्य बदला हुआ प्रकीर्णित हुआ। बाद में रमन ने प्रकाश स्रोत की तीव्रता बढ़ाने के लिए सात इंच व्यास वाला विकिरण दूरदर्शी (refracting telescope) प्राप्त किया और 1928 तक पराबैंगनी मर्करी आर्क दीपक भी प्रयोगशाला में जोड़ा।
खोज की प्रक्रिया और तकनीक
रमन एवं कृष्णन ने निष्कर्ष निकाला कि अधिकांश प्रकीर्णित प्रकाश अपनी मूल तरंगदैर्ध्य बनाए रखता है (रेले प्रकीर्णन), किन्तु अत्यंत निम्न मात्रा में प्रकाश अलग तरंगदैर्ध्य पर प्रकीर्णित होता है। इस घटना में प्रकाश का एक अंश अणु के आंतरिक ऊर्जा स्तरों के साथ ऊर्जा विनिमय के बाद निकलता है, अर्थात् इन-इलास्टिक प्रकीर्णन होता है। यह रमन प्रकीर्णन कहलाया। चूंकि यह प्रभाव अति-दुर्बल था (लगभग एक मिलियन में एक फोटॉन प्रभावित होता है), रमन ने सटीक मापन के लिए प्रकाश-विश्लेषक उपकरण का उपयोग किया। उन्होंने आँख की जगह पोर्टेबल स्पेक्ट्रोस्कोप का प्रयोग किया और अंततः क्वार्ट्ज स्पेक्ट्रोग्राफ (spectrograph) से प्रकीर्णित प्रकाश के स्पेक्ट्रम को फोटो पर दर्ज किया। इन परीक्षणों के फलस्वरूप 31 मार्च 1928 को Indian Journal of Physics में प्रकाश और प्रकीर्णन पर उनका पहला गणनात्मक विवरण प्रकाशित हुआ।
खोज की पुष्टि और वैज्ञानिक समुदाय की प्रतिक्रिया
रमन के परिणामों का वैज्ञानिक समुदाय ने शीघ्र ही परीक्षण किया। जोन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर. डब्ल्यू. वुड ने रमन की “चमकदार और आश्चर्यजनक खोज” की तात्कालिक पुष्टि की और इसे क्वांटम सिद्धांत का एक निर्णायक प्रमाण बताया। रूस के वैज्ञानिक ग्रिगोरी लैंड्सबर्ग और लियोनिद मंडेलस्टाम ने भी 21 फरवरी 1928 को मॉस्को में स्वतंत्र रूप से प्रकाश के संयोजकीय प्रकीर्णन की खोज की। इसके बाद आरंभिक सात वर्षों में रमन प्रभाव पर लगभग ७०० शोध पत्र प्रकाशित हुए, जिनमें कई भौतिकज्ञ पदार्थों की कंपनीय और घूर्णीय अवस्थाओं का अध्ययन करने लगे। कुछ ही वर्षों में रमन प्रभाव को विश्लेषणात्मक उपकरण के रूप में रासायनशास्त्रियों ने भी अपनाया, और इसे अकार्बनिक एवं कार्बनिक रसायनों की पहचान में खरोंच पर हस्ताक्षर की तरह काम में लाया।
नोबेल पुरस्कार एवं वैश्विक मान्यता
भारत सरकार ने 1971 में सी॰वी॰ रमन के सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था, जिसमें उनका चित्र अंकित है। रमन की खोजों के लिए उन्हें 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। वे नोबेल पुरस्कार जीतने वाले पहले एशियाई एवं पहली बार गैर-पश्चात्य (Non-Western) वैज्ञानिक बने। इस उपलब्धि ने उन्हें विश्व भर में ख्याति दी और रमन प्रभाव को अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय में स्थापित किया।
खोज के बाद विज्ञान पर प्रभाव
रमन प्रभाव ने भौतिकी एवं रसायन विज्ञान दोनों पर दूरगामी प्रभाव डाला। यह प्रकाश के क्वांटम-स्वरूप का शक्तिशाली उदाहरण बना। रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी के रूप में विकसित इस विधि ने रासायनिक यौगिकों को अद्वितीय रमन स्पेक्ट्रम (fingerprint) के आधार पर पहचानने की क्षमता दी। 1930 के दशक तक इसे द्रव, गैस और ठोस के गैर-विनाशकारी विश्लेषण की मुख्य विधि मान लिया गया। लेजर के आविष्कार ने रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी को और गति दी: आज यह तकनीक खनिजों की पहचान से लेकर औद्योगिक प्रक्रिया की निगरानी और जैव-चिकित्सा में सूक्ष्म संरचनाओं के विश्लेषण तक में प्रयोग की जा रही है। रमन ने अपनी 1928 की खोज में संकेत दिया था कि यह नया क्षेत्र विकिरण, क्वांटम और परमाणु-विज्ञान के अनेक प्रश्नों को उजागर करेगा – और सत्तर वर्ष बाद भी वैज्ञानिक अब तक इस क्षेत्र के परिणामों और अनुप्रयोगों को पूर्ण रूप से समझने की दिशा में कार्य कर रहे हैं।
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The NK Lekh (Neeraj Vishwakarma)

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